कोई अपना,,

 ऐ माँ तेरा साथ कितना प्यारा है,
 ऐ माँ तेरा स्पर्श कितना  न्यारा है,
शुक्रगुजार हूँ  उस बनाने वाले का,
 कि मेरे पास तू और तेरा प्यार ढ़ेर सारा है,
 तेरे प्यार ने मुझे हँसाना सिखाया ,
 तेरी डांट  ने मुझे मनाना सिखाया ,
और कभी रूठ गयी अगर तू मुझसे ,
तो माथे को चूम कर हक माँगना  सिखाया ।

 क्या तेरे साथ के बिना कोई अपना  नहीं होता ,
 तेरे दिखाए सपनों के अलावा  कोई सपना नहीं होता ,
क्योंकि देखा है मैंने छोटे छोटे बच्चों को करतब दिखाते हुए ,
 क्या उनको खिलाने  वाला कोई अपना नहीं होता ।

उनके चेहरे की मासूमियत,
 जिम्मेदारी में कहीं खोती सी दिखती है,
केवल दो निवाले के लिए उनकी आस,
हर आते -जाते चेहरे पर रहती है।
मन दुखी भी होता है ,और क्रोधित भी ,
क्योंकि असमर्थ है हाथ बढ़ाने  को अधिकांशता सभी 
रोक देती है कदम बढ़ते हुए उनके  कुछ रूढ़ियाँ ,
कुछ भी हो सकता है ,
वो धन,ओहदा या फिर समाज की बेड़ियाँ  ।

हर कविता या कहानी की पराकाष्ठा होती है,
परन्तु मेरी इस कृति की कोई पराकाष्ठा नहीं है,
अपितु यह एक प्रश्न है, जो सबसे मुखातिब होती है ।।

                                   ....आलोक

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कोई अपना 


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