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Showing posts from 2019

फ़ुरसत_Part4

1. मसरूफ़ियत हुई है, अनजानों से नज़दीकियाँ घटी हैं, जाने पहचानों से ये नए नए चेहरों की तलाश कब थमेगी, हम,,अपनों की भीड़ में लगते हैं, बेगानों से। 2. ढूँढ़ता हूँ आहट, उस कोने में हर दफ़ा कि अब आवाज़ नहीं आती, पुकारती थी नाम, पाकर मौजूदगी मेरी कि बस अब हवाएँ आती हैं, आवाज़ नहीं आती । 3. वजहों पर गए, तो बेवजह था सब, हालातों में उलझे, तो बेसबब था सब, मसला बस एक था मुद्दतों से, आगे उसके कहूँ या पीछे , बेवजह था सब । 4 . काश ये तस्वीरें कोई तिलिस्मी राह होती, देख कर इनको कुछ हलचल सी होती, जब चाहा बस देख लिया और अगले ही पल तो मुलाकात होती,, काश ये तस्वीरें कोई तिलिस्मी राह होती । .....आलोक 

गुलाबरानी

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उसके आने से पहले , सब ख़ाक था ज़िन्दगी तो चल रही थी, पर जैसे सब आवाक था। वो आई उसने सब संभाला, चूल्हा तो उसे रिश्ते में मिला पर बाहर का हाल उसने खुद संभाला था रोटी बनाते बनाते ,उसे घर दिखा बदहाली दिखी, मजबूरी दिखी और दिल के किसी कोने में, उसे खत्म करने की एक अलक दिखी । वो डट गयी अपने कामों में भिड़ गई तमाम जंजालों से उसे निकलना था अपना घर, इन अवसादों से इसीलिए वो जूझी दिन रात हर विषम हालातों से । क्या थकावट, क्या ज्वर पीड़ा चली वो मीलों लिए धुन का कीड़ा न समय का बंधन, न शक्तियों का भय चलती जा रही लिए, बस कांधों पर बीड़ा । गुलाबरानी  कुछ ऐसी थी ढीठ औरत जितना कष्ट, उतने ऊँचे स्वर में गाती थी किसी और की क्या मजाल ,  जब वो गाने पर आती थी सारी उम्र, सारे दुःख उसने 'गा' कर बिसरा दिए ऐसी थी वो बेबाक "गुलाबरानी" हाँ कुछ ऐसी थी वो बेबाक "गुलाबरानी" । बड़ा कठिन होता है, किसी का किया हुआ शब्दों में लिखना जिसने जिया हो उम्र भर, उसे चंद पन्नों में लिखना बड़ा कठिन होता है उस पर लिखना और,,, उसका न होना ...

फ़ुरसत_Part3

1. मेरी ख़ामोशी को  न जाने क्या क्या समझा,  जिसकी जैसी फ़ितरत  उसने वैसा ही समझा। बात चुभे तो संभाल लेता हूँ बातों के खंजर की जगह,  कलम निकाल लेता हूँ । 2. मेरी खामोशी की वजह पूछते हैं लोग क्यूँ है ये बेरुख़ी वजा पूछते हैं लोग क्या कहूँ उनसे की अब जवाब नहीं आती  यूँ ही हर बार जाने क्या  बेवज़ह पूछते हैं लोग। 3. दुनिया को देखने के नज़रिये अलग हैं, ज़िंदगी  जीने के ज़रिये अलग हैं, बस ख़्वाब पूरे करने की ज़ुस्तज़ू ही है वरना ख़्वाब सोने से पहले और बाद सब अलग हैं । 4. जब मुनासिब हो , बीते दौर में भी जाना चाहिए कुछ बीती और कुछ बीत रही को,  रूबरू होना चाहिए । ....आलोक 

तुम

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मेरे ख्वाबों की कल्पना का आयाम हो तुम अपार,असीमित भावनाओं का नाम हो तुम दीपक रूपी मन में जलने वाली लौ हो तुम तपते रेगिस्तान में चिर काल तक, रहने वाली ओस हो तुम | Tum  https://www.gulaabrani.com/2019/08/part2.html इस आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली राह हो तुम खुदा की हर इबादत में शरीक होने वाली दुआ हो तुम मोहब्बत को पाक करने वाली चाहत हो तुम पत्थरों में एहसास जगाने वाला स्पर्श हो तुम । मनु को  भगवान बनाने वाली श्रृद्धा हो तुम  किसी स्वप्न के साकार होने का आभास हो तुम किसी जीत के पहले का विश्वास हो तुम इसीलिये मेरी धड़कन का नाम हो तुम | ....आलोक 

फ़ुरसत_Part2

1. क्या हुआ सब सोये क्यों है अपने ख़यालों में खोए क्यों हैं ज़िन्दगी की खींचातानी में,  शायद सब फसें हैं  मुनासिब है,,, पर फिर भी,  क्या हुआ सब सोये क्यों हैं । 2. अच्छाइयाँ ,कुछ अच्छाइयों की कब्र में दफन हो गईं ख़ामोशियाँ, कुछ खामोशियों की रेत में फिसल गईं साल दर साल लम्हात निकलते रहे, और परछाइयाँ, कुछ परछाइयों में जब्त हो गईं। 3. कि उन वीरान गलियों में, अब कोई रुख़ नहीं करता कहते हैं,, पहले मोहब्बत बसती थी यहाँ,, अब महज मुज़समे ही रह गए । रूह तो कब की जा चुकी  ये खाली खोखले हैं,, बेसबब आवाज़ के और कुछ नहीं करता, कि उन वीरान गलियों में, अब कोई रुख़ नहीं करता ।। आलोक.....

शिकायत

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यूँ माहौल में तब्दीली न होती, यूँ हालातों की कुछ जरूरतें न होती, यूँ मुझे भी थोड़ी मतलबी आदतें होती, तो यूँ खुद से इतनी शिकायत न होती । यूँ मुझ से इतनी उम्मीदें न होती, यूँ मेरे ज़हन में ये सब बातें न होती, यूँ मुझमें इतनी समझदारी न होती, तो यूँ खुद से इतनी शिकायत न होती । शिकायत  https://www.gulaabrani.com/2019/08/saavn.html?m=1 यूँ समय की रेत , मुट्ठी से न फिसल रही होती यूँ उन तरसाई आँखों में हरदम आस न होती, यूँ मुझमें भी ये सब देखने की शक्ति न होती, तो यूँ खुद से इतनी शिकायत न होती। यूँ अपने आप में जीने की ज़िद न होती, यूँ थोड़ा सा डरने की आदत न होती, यूँ लापरवाही की थोड़ी शय होती, तो यूँ खुद से इतनी  शिकायत न होती ।।                             आलोक,,,,

फ़ुरसत_Part1

1. कि अब सिर्फ आसमां नहीं दिखता, आखिर और भी छत हैं , जो ऊँची हो गई हैं मेरे मोहल्ले की ।। 2. बहुत से बदलाव देखे है मैंने कुछ ठहराव, पर बहुधा बिखराव ही देखे है मैंने समय ज़ज़्बातों,जरूरतों  को कुछ यूँ तराश देता है कि बरसों खड़ी दीवार में भी अब, ढेरों सुराख देखे है मैंने हाँ, बहुत से बदलवाव देखे है मैंने । 3. इस तरह मेरी बनाई हुई चाय को सिरहाने पर रख कर सो गई, नींद में थी शायद ,, जब फ़रमाइश की उसने ।। 4. कुछ आधे अधूरे सवालात बाकी है बरसो बीती जो मुझ पर,, उसका हिसाब अभी बाकी है आप भी कुछ कम ख़फ़ा, न हुआ करते थे बस मेरे हिस्से की नाराज़गी अभी बाकी है कुछ आधे अधूरे सवालात बाकी है ।। .....आलोक

सावन

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I wrote these lines years ago.Recently, I was going through my poetry collection and found it. And fortunately, it is the holy month of saavn.  So I post it now. Many of you will say, what a timing or what a coincidence and I say yes , it is .. सावन की पहली बारिश में, मैं भीगा , मेरा तन भीगा मेरा मन भीगा , जीवन भीगा । टप टप गिरती बूंदों से, घर गूँजा, आँगन गूँजा मिलकर मधुर ध्वनि से खग की डाली चहकी, कलियाँ चहकी और चहकी बागों की गालियाँ । छल छल बहते वर्षा जल से, पोखर छलके, नदियाँ छलकी छलके सारे ताल-सरोवर । सावन  सावन की पहली बारिश में, यादें भीगी, बातें भीगी मंशा भीगी, तृष्णा भीगी प्यासी सूखी धरती भीगी । नाच रहा मन छप छप करता जैसे नाचे बाग मयूरा बोल रहा मन ची-ची करता जैसे गाये डाल पपीहा । सावन की पहली बारिश में, मैं भीगा , मेरा तन भीगा मेरा मन भीगा , जीवन भीगा ।                                                आलोक ,,...

आश_Hope

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बहुरेंगे सब गम के बादल, खुशी की बारिश आएगी बरसों रहा जो मन उदास, उसमें चहचहाहट छाएगी । करवटों में गुज़री कितनी रातें , दिन कितने सूनसान  हुए आंखों में बेसब्री लेकर ज़िंदा जैसे लाश हुए । Hope  चलते फिरते राहों में बस, उपायों का ही मंथन होता तन ही बस जो चलता फिरता, मन तो जैसे शून्य हुआ । फिर भी हरदम लगा रहा वो, मरहम की खोज में थोड़ी खीझ ,बहुत विश्वास उस 'अदृश्य विरासत' में, उस 'अदृश्य विरासत' में । क्योंकि,,, बहुरेंगे सब गम के बादल, खुशी की बारिश आएगी बरसों रहा जो मन उदास, उसमें चहचहाहट छाएगी, उसमें चहचहाहट छाएगी ।।                                                                                                    आलोक ,,,,

तन्हाई भी कुछ कहती है,,

सुनो,तन्हाई भी कुछ कहती है, जो, लोग नहीं कहते वो सब कहती है, सुनाती है सबकुछ जो कहना चाहते हो, कभी सहारा कविता , तो कभी ग़ज़ल कहती है । न किसी की तलाश , न किसी से आस बस ख़ामोश होकर, ये तन्हाई सब कुछ कहती है न इल्तज़ा, न शिकायत बस दिल के एहसास, अपने आप से कहती है, सुनो, तन्हाई भी बहुत कुछ कहती है । https://gulaabrani.com/2019/06/october.html?m=1 चुपचाप कह लेती है, जी भर के झगड़ लेती है औऱ हिलाकर तुमको, कई सवालात करती है क्या थे, क्या हो गए हो? खुद के वजूद का भान कराती है गुहार लगाती है खुद की आज़ादी की सुनो, तन्हाई एक वक्त के बाद, खुद की रिहाई चाहती है ।                                                           .....आलोक 

नासमझी,,

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परिवारों की नासमझी में, मासूम झुलसते हैं गलती करे बड़े और, सज़ा छोटे पाते है  मिलकर सब खेले खुशियाँ मनाएँ पर इस ग़लतफ़हमी की आग में , बचपन जलते हैं। अपनों की बात अपनों से न कर, गैरों की सुनते हैं और फिर हक़ से लड़ने के बजाय, ईर्ष्या में सुलगते हैं अपना बचपन तो जैसे तैसे जी लिया पर अभी बचपन और हैं , जो हुडदंग की आस करते हैं । नासमझी https://gulaabrani.com/2019/05/many-lives-many-stories.html?m=1 मन के सारे कौतुहल को, बड़ों की खींची लकीरों में समेट लेते हैं, बड़ी आस से देखते और मजबूरी का भाव लिए मुँह फेर लेते हैं । वो क्या समझे ये लकीरें  क्यूँ खिंच गयीं जिन चबूतरों पर हल्ला होता था वो क्यूँ सुन्न पड गयीं अभी कुछ दिनों की ही तो बात है हम सब खेलते थे, हँसते थे और अचानक,, सबकी आदतें एकदम बदल गयीं । आख़िर कैसी है ये समझदारी कि बरसों का प्यार दुलार जिस पर चार चवन्नियां भारी ममता स्नेह जिम्मेदारी सब राख कान के कच्चे, रुपया के सच्चे बस ऐसी ही है बड़ों की साख ।                       ...

रोटी,,

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रोटी भी कैसे कैसे  रंग दिखाती है, कभी नौकर तो कभी मालिक बनाती है दो वक़्त रोटी के लिए , इन्सान क्या नहीं करता , कभी तोड़ता कमर मजूरी में, कभी फोड़ता सिर मज़बूरी में | कभी ठेला लगा कर, गली-गली चिल्लाता तो कभी मौत का खेल,दिखा कर रोजी कमाता कभी बनकर फेरी वाला,तपती धूप में चक्कर लगता तो कभी बनकर जोकर लोंगो को हंसाता | रोटी  कभी बर्फ का गोला बनाकर ,बच्चों को हर्षाता तो कभी भट्ठी के सामने बैठकर , हथौड़ा चलता कभी सिर पर बोझा रखे मीलों चलता तो कभी भाड़ में चने की तरह भुनता | रोता है देख हालत अपने कुनबे की, रोटी के लिए,,, इसीलिये करता है ऐसे कम, जो निंदनीय है हम आप के लिए | किसी इन्सान की तकदीर मजदूरी नहीं होती ये तो दर्द है रोटी का जो बनावटी नहीं होती पता नहीं क्यों दर्द सा होता है इनको देख कर शायद,,, रहा हो वास्ता मेरा इनसे ,मेरे किसी जन्म पर |                                          .....आलोक          ...

तू जो नहीं_beyond reach

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In 2012 , when I was in my graduation a novel was quite in the news around the inmates of my hostel. Usually I was not the kind of novel reader and I had read a few novels till now. And that was one of them. So I borrowed that novel from my friend and started reading it. It was a love story. And It was nurtured with love, emotions, feelings and tragedy too. Well,,I am not going to be a spoiler for those who haven't read this novel yet. So I read that novel and after getting the gist of that novel or feelings I created my own version of that story in the poetic way. Hope you all gonna love this. And for those who are willing to read that novel, here is the name "I too Had a Love story" by Ravinder Singh. तू नहीं मेरी जिन्दगी में , तेरी याद ही सही , साथ नहीं तू मेरे , मेरी तनहाई ही सही, है तू दूर फलक पर कहीं मुझसे,, तुझे पाने की मेरी ये बेबस फरियाद ही सही । हर लम्हा हर पल तुझे पाता हूँ अपने साथ जैसे थामे हुए हाथ मेरा मुझसे कहे, मैं यही हूँ  तुम...

Lamhaa

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हर लम्हा मुझसे कुछ कहने की आस रखता है, रहूँ भिज्ञ  या अनभिज्ञ  उससे , फिर भी प्रयास  करता  है हो चाहे ऊँचाइयों के अर्श पर, या फिर गहराइयों के फर्श पर बस यही लम्हा ही तो है, जो साथ रहता है | हो जीवन विलासिता का, या हो संघर्ष  गरीबी का एक लम्हा ही है जो ये दीवार बनाता है चाहे तन पर हो मखमल या फटे-चिथड़े लत्ते, ये लम्हा ही हमें मर्म-हीन और बेशर्म बनाता है । बचपन बीते अपनों के साये में, या सड़कों में पड़े मलबे के सराय में ये लम्हा ही है जो हमें ढीठ बनाता है कहीं गुजरती रातें छप्पन-भोग के स्वाद से, तो कहीं भूखे पेट करवटों की आड़ में, ये लम्हा ही है जो सम्पन्नता, और विपन्नता का अधिकार दिलाता है । Lamhaa https://gulaabrani.com/2019/02/tomorrow-impression.html रुक जाते है हम,,, किसी असहाय की मदद करने में कमबख्त ये लम्हा ही हमें सफ़ेद-पोश, और उसे जग की धूल बनाता है ।                                   .....आलोक 

कुछ तो कहानी लिख रहा हूँ मैं _Inside out

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कुछ तो कहानी लिख रहा हूँ मैं कुछ सुलझी कुछ उलझी लिख रहा हूँ किसको समझा दूँ ,क्या समझ रहा हूँ क्या कह दूँ, आख़िर कर क्या रहा हूँ बहती हवाओं में स्वतः बह रहा हूँ बार बार  संभलने के बाद भी ढ़ह रहा हूँ आख़िर कुछ तो कहानी लिख रहा हूँ मैं । दो पल ठहर कर सोचा, कहाँ चल रहा हूँ, है कोई नई डगर या फिर वहीं मुड़ रहा हूँ उम्मीदों की हार या हताशाओं का प्यार है वास्तिवकता कुछ या फिर सब आभास यही सवालात कुछ ,खुद से आम कर रहा हूँ आख़िर कुछ तो कहानी लिख रहा हूँ मैं । Inside-out https://gulaabrani.com/2019/02/the-saga-of-sacrifice.html मन की अधीरता को हर दफा चुप कर रहा हूँ अवलोकन खुद के जिन्हें बेसबब कह रहा हूँ दिमाग और मन के दंगल का, रोज मध्यस्थ सा बन रहा हूँ गणनाएँ न जाने कौन कौन सी कर रहा हूँ जवाब हैं बहुतेरे जिनके लिए फिर रहा हूँ ज़रा सी आस में भी पूरा जी रहा हूँ आख़िर कुछ तो कहानी लिख रहा हूँ मैं । रोज खुद में , एक वजूद  खोज रहा हूँ समय को बहुत,,, बहुत तेजी से निकलता देख रहा हूँ खुद से सहसा बस एक ही सवाल उठता है, क्या वाकई कुछ कर रहा हूँ मैं ?? आख़िर कुछ...

वेद_the Conspirator

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HAHA,, well the most awaited poem of the century is now exclusively available here😆😆. There was a scenario back in the college related to my friend. He told me a real life incident that was quite messed up. He told me that some one had given him a nickname called the_conspirator .                            That incident was a bit shocking but farcical too for him.Though he had no idea how to react on that remark because he never imagined such thing. Well he told me the story with mixed expressions of surprise and ridicule on his face. As being his friend and writer I created this master piece😉  in 2014 but told him that I would release this poem on some day but not today . And finally today is that great, grand day.  So here is that master piece........ बहती हवाओं  से एक संदेशा आया है, मेरे किये गए कारनामों का लेखा आया  है , न जाने कब मैं , किसके लिए , क्या करता हूँ जो...

दायित्व_Sad Reality

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I wrote this poem on march 9th, 2013 . And it is a bit coincidence that after 6 years I am sharing it on my blog on march 10th, 2019 . Yeah, it is not exactly the same date but the closest one. I already posted it on facebook 6 years ago .              My whole creation is based on the sad reality around us. Parents become the most important responsibility at their old age. They went through all trauma, pain and sacrifice for the sake of their children's future .No matters what are the situations, they always ready to do anything for a cute smile on your face.              But what do we do??  just leave them in the lurch . In their dire need, we just manage to involve ourselves in the busiest facade . I think that's why, it is the "Sad Reality". उम्र हो चली  मेरी  बिछड़ने की अपनों से,  साँस चल रही बस मिलने की हसरत में अपनों से, न जाने किस घड़ी उसका पैगाम आ जाये, और तैयारी  ...

हाँ, एक कुआँ हूँ मैं

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हाँ, एक कुआँ हूँ मैं भावनाओं के नीर से लबालब मर्म की मिट्टी से निर्मित सहजता की जगत लिए सींचने में तत्पर, एक कुआँ हूँ मैं । मैं भरता रहा, निकलता रहा रही जिसकी जरूरत जैसे, वैसे ही मेरा नीर बहता रहा समय दर समय गुजरता रहा मेरी उपयोगिताओं का सफर बढ़ता ही गया। Well of Feelings https://gulaabrani.com/2019/01/care-limit.html सहसा समय बदला प्रकृति ने अपना दाव खेला, मुझमे से बस निकलता रहा मेरा स्तर धीरे धीरे घटता जा रहा है अरसा गुज़र गया इंतज़ार में, न बारिश बची,न झीलें फिर से उफनाने का स्वप्न भी क्षण क्षण मरता रहा, हाँ, एक कुआँ हूँ मैं । आश में हूँ शायद बरस जाए मेरे खाली होते अस्तित्व में एक बार फिर बहार आ जाये, ललचायी आँखों से ऊपर देखता हूँ, हाँ, एक कुआँ हूँ मैं ।।                              .....आलोक  

आहट_tomorrow's Impression

I wrote these lines in the morning on someday. Actually a demise happened in the adjacent house. And an old age couple was watching this incident and of course I was watching them. They were holding each others hand and stood on guardrails silently. So, that whole scenario intrigued me to write the impressions of that couple. So here it is,,, उस जनाज़े को देख , मन थोड़ा डोला कफ़न में लिपटी उस काया को देख, न जाने से भीतर से कौन बोला मेरी "वनिता" ने मेरा हाथ थामा और मेरे अधरों ने चुपचाप रहकर उसकी चिंता को भाँपा। खैर सवाल एक से कुछ मेरे अंदर भी थे मंजर भविष्य का जो उसने देखा , वही मेरे अंदर भी थे बस हाथ में हाथ धरे मैं , सामने का मंज़र देख रहा था और बिन कहे कुछ, उसका और अपना ढाढ़स बांध रहा था । वो सामने का मंजर हमको डरा सा रहा था रह रह कर बस एक ही सवाल आ रहा था आखिर ज़िन्दगी की दहलीज पर तो हम भी खड़े थे न जाने कब ये जादू खत्म हो, और फिर हम भी इसी "दृश्य" में नज़र आये । उस ऊँचे करूण क्रंदन को सुन मन मे सच का आभास तो हुआ पर उसे देखने का साहस न हु...

मर्म,,

This blog was based on the lines of The great poet Ramdhari singh Dinkar . These lines are "श्वानों को मिलता दूध -वस्त्र ,  भूखे बालक अकुलाते हैं ,  माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं। " So I read these lines and wrote my version years ago. I created this poem based on my imagination and emotions. सड़क किनारे बैठी उस अबला को देखा , जाड़े की उस कपकपाती रात में उसे दृढ सा देखा  , मानो क्या बिगाड़ लेगी ये रात उसका , उसके चेहरे पर एक भाव सबला सा देखा ।  लिए एक मासूम को गोद में ,  वो आसमान को ताक  रही थी, कितनी भावना शून्य है यह दुनिया , बस यही भांप रही थी । उसे अपने आँचल में कुछ इस कदर, छिपा रखा था ,उस माँ ने की जैसे चला हो ये निष्ठुर संसार उसे भी ,  खुद जैसा बनाने । भूख और बेबसी उस पर हावी सी हो रही थी , पर तिरस्कार रुपी आँधी में वो चट्टान सी कड़ी थी , उसके चेहरे के भावों को पढ़ा तो जाना , वो बेचारी अन्दर ही अन्दर रोये जा रही थी । इस पराई बस्ती में कौन उसका अपना था , उसका लाल न जिए कभी ऐसी...

पिता_the Saga of Sacrifice

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I know today ( 07/02/2019 ) is not the Father's day. And trust me I don't know exactly on which day it is celebrated because I don't follow this trend of wishing someone on that particular day only. I believe in saying or expressing anything to my loved ones beyond these date lines.  I just write this poem but the genesis of the idea had begun years ago. I had written poems on Mother but never had written on Father or say I was unable to write. Didn't know why?                  when I was in third year of my Graduation one of my friends named " Shantanu " told me to write something about Father. I confirmed him and tried several times to write at least something, but failed. All those years I felt different phases of life and saw different shades of people. Perhaps all these things gave me the power to write. So it took almost six years to write down this poem. But finally I wrote it. So this is for you my friend... सब्र की बेस...

विडम्बना_Nirbhaya

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मेरा साया मुझ में सिमटता ही जा रहा है, मेरा अस्तित्व कहीं भटकता ही जा रहा है, हाथ उठाकर उसे छूना तो है, पर दायरा समाज का गिरता ही जा रहा  है ।  आखिर क्या भेद है ,मुझमें  और पुरुषों में , अधिकारों की दृष्टि से , आखिर क्या भेद है मुझमें और उनमे , जीने की इच्छा की दृष्टि से, की उनके जन्म पर तो आह्लाद , और मुझे आने ही  नहीं दिया जाता है , कोख से ।  यातनाएँ  और जिल्लत तो जैसे मेरे अपने हैं , बेबसी ,लाचारी और शोषण तो जैसे मेरे गहने हैं, बाज़ारों में अपनों और गहनों का कोई मूल्य नहीं है , ये तो मैं हूँ, जिस की वजह से ये सब मंहगे हैं ।  आधुनिक समाज शोहदों का प्रतिरूप सा  बन गया है, उनके फूलने-फलने का रूप सा बन गया है , आये -दिन किसी न किसी की अस्मत से खेलते है ये दरिन्दे , और समाज केवल मूक दर्शक सा बन गया है ।  हमारी आप-बीती कोई समझ नहीं सकता , आगे बढ़कर कोई हमारे लिए लड़ नहीं सकता , अरे समाज ,,ये दुर्भाग्य है तुम्हारा , कि  मेरे बिना तुम्हारा विकास हो नहीं सकता ।  " मैं तु...

कुछ तेरे सपने, कुछ मेरे सपने

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कुछ तेरे सपने, कुछ मेरे सपने  कहने को तो ये अलग अलग है ,सपने  पर क्यों अक्सर मैं देखा करता हूँ , तुम्हारे सपने  शायद कुछ मेरे से है,ये तेरे सपने ।  एक नई तरंग सी उठती है , एक नई आस सी जगती है , लगता है मिलेंगे नए आयाम , मिलकर कुछ तेरे सपने से ,ये मेरे सपने ।  मैंने अपना सब कुछ दिया , तूने यक़ीनन सब  कुछ किया  हर डगर पर मिलकर चले  कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने।  हालातों ने डराया ,मुसीबतों ने रुलाया  काल चक्र ने भी खूब उलझाया  फिर भी चले ये , निडर ही बढ़े ये ,साथ पाकर  कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने।  अतीत बिसरा दिया मैंने , सारे दर्दोगम भुला दिए मैंने, क्योंकि अनुभूति सी हुई है किसी आह्लाद की , जब देखे पूरे होते हुए , कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने।  बहुत तो नहीं , पर कुछ वादे जरूर थे  होंगे एक दिन पूरे,  इतने तो यक़ीनन थे  भले ही हम साथ न हो  पर साथ हमेशा होंगे  कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने। माहौल की तस्वीर बदल...

हद ,,

मैं काबिल नहीं तेरी रहनुमाईयों  के, ये मेरे वजूद पर भारी सी पड़  रही है , मैं जनता हूँ हद अपने वजूद की , इसीलिये मेरी आँखें तेरी अच्छाई के बदले ,  केवल नम सी पड़  सी रही है ।  मानो,मेरी मजबूरियों ने मुझे  कैद सा कर लिया  जब देखता हूँ तो वो हद ही दिखाई देती है, तेरी हजार अच्छाइयों के बदले ,   मेरी वो एक हिचकिचाहट दिखाई देती है । लगता है, मैं बेबस हो गया हूँ  हालातों की कश्मकश में फँस सा गया हूँ, अपनी हद को बचाते बचाते, मैं  शायद तेरा ऋणी ही बन गया हूँ । तुम मेरी हद को क्या नाम देती हो , मुझ पर क्या इल्जाम लगाती हो , जो भी है गुनेहगार  हूँ तुम्हारा  बहुत चाहा की तुमसे कुछ कहूँ ,  कुछ अपनी कहूँ , कुछ तुम्हारी सुनूँ । पर कमबख्त  ये चुप रहने की , लत सी लग गयी है , और हालातों ने इस नशे का  लती ही बना  दिया  है, आखिर अपनी हद को बचाते बचाते, मैं    शायद तेरा ऋणी ही बन गया हूँ हालातों की कश्मकश में बेतहाशा फँस गया हूँ।  ...

नींद और मैं ,,

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यूँ अक्सर रातों में नींद से बहस होती है  वो   चाहती   है   हमें   सुलाना   और   इन   आँखों    में , न   सोने   की   ज़िद   होती   है वो   मुझसे   पूछती   है  , आखिर   वजह   क्या   है  ? इतनी    बेसब्री    से   मैं   इंतज़ार   में   हूँ , न   जाने   तुम्हारी   रजा   क्या   है   परेशान   है   जिसके   लिए   जहाँ   सारा वो   तुम्हारे   इंतज़ार   में   आस   लगाये   बैठी   है  | आखिर   क्यूँ    हमसे   खफा   हो , हमने   ऐसी   खता   क्या   की   है ?..... मुझे   की मनाने की हद से  , उसमे   नमी   सी   आ   गयी   आवाज   में   उसकी  , एक   उदासी   समा   गयी   इस   हसीन   रात   म...