मंजिले बहुत हैं, भटकाव बहुत हैं,,

मंजिले बहुत हैं, भटकाव  बहुत हैं,
साधन  बहुत हैं , साधना नयी है,
जरा सा डिगे हम , एक साधन नया है,
जरा सा मुड़े हम, एक भटकाव खड़ा है,
हमें दूर ले जाने की शक्ति है, उसमे
एक नयी मंजिल अनुभूति की भक्ति है, उसमे
हर भटकाव की पराकाष्ठा ,एक मंजिल ही है,
वो तय हो या अकस्मात ,पर एक यथार्थ ही है।


साधन होने से साधना तो होती है,
पर कितनी गहरी ??
ये तो प्राप्त मंजिल पर ही निर्भर है,
किसी भटकाव का मूल गलत हो , ये उचित है
परन्तु उसका अंत तो साधना पर ही निर्भर है,
जैसे पादप ,दरख़्त की पहचान नहीं बताता ,
वैसे एक भटकाव , मनुष्य का भाग्य नहीं बनता ,
भटकाव तो इंसान की  परिपक्वता का सबब है,
और भविष्य में न भटके फिर ,
 इसीलिये पहला भटकाव उसका ,सबक है। 


भटकने से ही लक्ष्य दूरी का आभास होता है,
और इसी से वहाँ  पहुँचने का प्रयास होता है,
भटकने का अंदेशा ,गलत नहीं है
ये तो समुन्दर में उठे ज्वार जैसा होता है,
जो  क्षणिक है, नश्वर है,
जबकि यथार्थ तो वो साधना है,
जो समुन्दर की तरह विशाल और गहरी होती है,
इसलिए मंजिले बहुत हैं, भटकाव  बहुत हैं,
साधन  बहुत हैं , साधना नयी है।

                                                        .....आलोक 

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