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Showing posts from February, 2019

आहट_tomorrow's Impression

I wrote these lines in the morning on someday. Actually a demise happened in the adjacent house. And an old age couple was watching this incident and of course I was watching them. They were holding each others hand and stood on guardrails silently. So, that whole scenario intrigued me to write the impressions of that couple. So here it is,,, उस जनाज़े को देख , मन थोड़ा डोला कफ़न में लिपटी उस काया को देख, न जाने से भीतर से कौन बोला मेरी "वनिता" ने मेरा हाथ थामा और मेरे अधरों ने चुपचाप रहकर उसकी चिंता को भाँपा। खैर सवाल एक से कुछ मेरे अंदर भी थे मंजर भविष्य का जो उसने देखा , वही मेरे अंदर भी थे बस हाथ में हाथ धरे मैं , सामने का मंज़र देख रहा था और बिन कहे कुछ, उसका और अपना ढाढ़स बांध रहा था । वो सामने का मंजर हमको डरा सा रहा था रह रह कर बस एक ही सवाल आ रहा था आखिर ज़िन्दगी की दहलीज पर तो हम भी खड़े थे न जाने कब ये जादू खत्म हो, और फिर हम भी इसी "दृश्य" में नज़र आये । उस ऊँचे करूण क्रंदन को सुन मन मे सच का आभास तो हुआ पर उसे देखने का साहस न हु...

मर्म,,

This blog was based on the lines of The great poet Ramdhari singh Dinkar . These lines are "श्वानों को मिलता दूध -वस्त्र ,  भूखे बालक अकुलाते हैं ,  माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं। " So I read these lines and wrote my version years ago. I created this poem based on my imagination and emotions. सड़क किनारे बैठी उस अबला को देखा , जाड़े की उस कपकपाती रात में उसे दृढ सा देखा  , मानो क्या बिगाड़ लेगी ये रात उसका , उसके चेहरे पर एक भाव सबला सा देखा ।  लिए एक मासूम को गोद में ,  वो आसमान को ताक  रही थी, कितनी भावना शून्य है यह दुनिया , बस यही भांप रही थी । उसे अपने आँचल में कुछ इस कदर, छिपा रखा था ,उस माँ ने की जैसे चला हो ये निष्ठुर संसार उसे भी ,  खुद जैसा बनाने । भूख और बेबसी उस पर हावी सी हो रही थी , पर तिरस्कार रुपी आँधी में वो चट्टान सी कड़ी थी , उसके चेहरे के भावों को पढ़ा तो जाना , वो बेचारी अन्दर ही अन्दर रोये जा रही थी । इस पराई बस्ती में कौन उसका अपना था , उसका लाल न जिए कभी ऐसी...

पिता_the Saga of Sacrifice

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I know today ( 07/02/2019 ) is not the Father's day. And trust me I don't know exactly on which day it is celebrated because I don't follow this trend of wishing someone on that particular day only. I believe in saying or expressing anything to my loved ones beyond these date lines.  I just write this poem but the genesis of the idea had begun years ago. I had written poems on Mother but never had written on Father or say I was unable to write. Didn't know why?                  when I was in third year of my Graduation one of my friends named " Shantanu " told me to write something about Father. I confirmed him and tried several times to write at least something, but failed. All those years I felt different phases of life and saw different shades of people. Perhaps all these things gave me the power to write. So it took almost six years to write down this poem. But finally I wrote it. So this is for you my friend... सब्र की बेस...

विडम्बना_Nirbhaya

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मेरा साया मुझ में सिमटता ही जा रहा है, मेरा अस्तित्व कहीं भटकता ही जा रहा है, हाथ उठाकर उसे छूना तो है, पर दायरा समाज का गिरता ही जा रहा  है ।  आखिर क्या भेद है ,मुझमें  और पुरुषों में , अधिकारों की दृष्टि से , आखिर क्या भेद है मुझमें और उनमे , जीने की इच्छा की दृष्टि से, की उनके जन्म पर तो आह्लाद , और मुझे आने ही  नहीं दिया जाता है , कोख से ।  यातनाएँ  और जिल्लत तो जैसे मेरे अपने हैं , बेबसी ,लाचारी और शोषण तो जैसे मेरे गहने हैं, बाज़ारों में अपनों और गहनों का कोई मूल्य नहीं है , ये तो मैं हूँ, जिस की वजह से ये सब मंहगे हैं ।  आधुनिक समाज शोहदों का प्रतिरूप सा  बन गया है, उनके फूलने-फलने का रूप सा बन गया है , आये -दिन किसी न किसी की अस्मत से खेलते है ये दरिन्दे , और समाज केवल मूक दर्शक सा बन गया है ।  हमारी आप-बीती कोई समझ नहीं सकता , आगे बढ़कर कोई हमारे लिए लड़ नहीं सकता , अरे समाज ,,ये दुर्भाग्य है तुम्हारा , कि  मेरे बिना तुम्हारा विकास हो नहीं सकता ।  " मैं तु...

कुछ तेरे सपने, कुछ मेरे सपने

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कुछ तेरे सपने, कुछ मेरे सपने  कहने को तो ये अलग अलग है ,सपने  पर क्यों अक्सर मैं देखा करता हूँ , तुम्हारे सपने  शायद कुछ मेरे से है,ये तेरे सपने ।  एक नई तरंग सी उठती है , एक नई आस सी जगती है , लगता है मिलेंगे नए आयाम , मिलकर कुछ तेरे सपने से ,ये मेरे सपने ।  मैंने अपना सब कुछ दिया , तूने यक़ीनन सब  कुछ किया  हर डगर पर मिलकर चले  कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने।  हालातों ने डराया ,मुसीबतों ने रुलाया  काल चक्र ने भी खूब उलझाया  फिर भी चले ये , निडर ही बढ़े ये ,साथ पाकर  कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने।  अतीत बिसरा दिया मैंने , सारे दर्दोगम भुला दिए मैंने, क्योंकि अनुभूति सी हुई है किसी आह्लाद की , जब देखे पूरे होते हुए , कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने।  बहुत तो नहीं , पर कुछ वादे जरूर थे  होंगे एक दिन पूरे,  इतने तो यक़ीनन थे  भले ही हम साथ न हो  पर साथ हमेशा होंगे  कुछ तेरे सपने ,कुछ मेरे सपने। माहौल की तस्वीर बदल...

हद ,,

मैं काबिल नहीं तेरी रहनुमाईयों  के, ये मेरे वजूद पर भारी सी पड़  रही है , मैं जनता हूँ हद अपने वजूद की , इसीलिये मेरी आँखें तेरी अच्छाई के बदले ,  केवल नम सी पड़  सी रही है ।  मानो,मेरी मजबूरियों ने मुझे  कैद सा कर लिया  जब देखता हूँ तो वो हद ही दिखाई देती है, तेरी हजार अच्छाइयों के बदले ,   मेरी वो एक हिचकिचाहट दिखाई देती है । लगता है, मैं बेबस हो गया हूँ  हालातों की कश्मकश में फँस सा गया हूँ, अपनी हद को बचाते बचाते, मैं  शायद तेरा ऋणी ही बन गया हूँ । तुम मेरी हद को क्या नाम देती हो , मुझ पर क्या इल्जाम लगाती हो , जो भी है गुनेहगार  हूँ तुम्हारा  बहुत चाहा की तुमसे कुछ कहूँ ,  कुछ अपनी कहूँ , कुछ तुम्हारी सुनूँ । पर कमबख्त  ये चुप रहने की , लत सी लग गयी है , और हालातों ने इस नशे का  लती ही बना  दिया  है, आखिर अपनी हद को बचाते बचाते, मैं    शायद तेरा ऋणी ही बन गया हूँ हालातों की कश्मकश में बेतहाशा फँस गया हूँ।  ...

नींद और मैं ,,

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यूँ अक्सर रातों में नींद से बहस होती है  वो   चाहती   है   हमें   सुलाना   और   इन   आँखों    में , न   सोने   की   ज़िद   होती   है वो   मुझसे   पूछती   है  , आखिर   वजह   क्या   है  ? इतनी    बेसब्री    से   मैं   इंतज़ार   में   हूँ , न   जाने   तुम्हारी   रजा   क्या   है   परेशान   है   जिसके   लिए   जहाँ   सारा वो   तुम्हारे   इंतज़ार   में   आस   लगाये   बैठी   है  | आखिर   क्यूँ    हमसे   खफा   हो , हमने   ऐसी   खता   क्या   की   है ?..... मुझे   की मनाने की हद से  , उसमे   नमी   सी   आ   गयी   आवाज   में   उसकी  , एक   उदासी   समा   गयी   इस   हसीन   रात   म...

ओज_Thought empowerment of a Common,,

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This thought was written down in 2013.  And there was a small house in front of my two storey rented building. I used to live  on the 2nd floor. And I usually saw some persons shouting  and  cheering  over  there.  Sometimes it was the moment of joy and  sometimes, it was just chaos. No doubt, this  was a below  average earning family by their living style.               But there was definitely something that  caught  my attention  and  encouraged me to   write  lines on the  empower  of that family. And that was  their  reality, honesty, attitude a nd  survival  instinct .  There was no facade except  simplicity and belief. They didn't even care what others  thought about them. They just believed  in living their life with their way.  I had already posted this  poem on facebook years ago. So ...