पिता_the Saga of Sacrifice

I know today (07/02/2019) is not the Father's day. And trust me I don't know exactly on which day it is celebrated because I don't follow this trend of wishing someone on that particular day only. I believe in saying or expressing anything to my loved ones beyond these date lines.
 I just write this poem but the genesis of the idea had begun years ago. I had written poems on Mother but never had written on Father or say I was unable to write. Didn't know why?
                 when I was in third year of my Graduation one of my friends named "Shantanu" told me to write something about Father. I confirmed him and tried several times to write at least something, but failed. All those years I felt different phases of life and saw different shades of people. Perhaps all these things gave me the power to write. So it took almost six years to write down this poem.
But finally I wrote it.
So this is for you my friend...


सब्र की बेसब्री उससे अच्छा
भला कौन जानता है,
आँखें भले ही सोयी हो
पर एक एक सपना जागता है।

अपनों की ख़ुशी के लिए
क्या कुछ नहीं करता ,
बस उस मासूम हँसी के लिए
अपनी क्षमता से बढ़कर करता है ।

न रोता है, न गुस्सा करता है
बस सारे आँसू पीकर
अगली चुनौती के लिए खड़ा होता है
जो अपनी जरूरतों को भूल
नादानियों और मासूमियत की परवाह करता है
उम्र कितनी भी हो नादानी की, पर
जान वो बचपन हो जैसे छिड़कता है
दुख होने पर भी कुछ नही कहेगा,
बस एक कोने में,
थोड़ा आँखों को भिगोता है ।


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Saga of Sacrifice 
https://gulaabrani.com/2019/01/thought-empowerment-of-common.html?m=1

वो वक़्त आने पर हर दरवाज़ा  खड़खड़ाता है
हाथ जोड़ता है, इल्तज़ा करता है
और वक़्त आने पर वो ,
अपनों के लिए ,अपनों से भिड़ता है ।

आस टूटने पर घबराता है
अपनों की हँसी का कल सताता है
खुद की बेबसी का एहसास आता है
अपने चारो ओर अपनों का ,
सारा भेद समझ में आता है
रुपया पैसा ही अंततः बचता है
जिम्मेदारी, ममता ,मोह ये सब तो
ग़लतफ़हमी और अहंकार के बोझ के नीचे ,
कहीं बहुत नीचे दब  सा जाता है।


सिसकता है अपनों के लिए ,
आस रखता है अपनों से
पर जब,,
समय की आँधी प्रबल हो
उम्मीदों का दामन रिक्त हो
हर जगह से आस टूटे
पर मन में दृण विश्वास हो
तब  खुद की परवाह किये बिना
वो कुछ ऐसा करता है
जो शायद सबको चुभे
जिसकी निंदा सारा जहाँ करे,
पर वो बेफिक्र होकर,
अपना दायित्व निभाता है
कल चाहे जो कहे
पर,,,
आज की जिम्मेदारी , आज उठाता है।

बड़ा कठिन है "पिता" बनना
और उससे भी कठिन ,
उसको शब्दों में लिखना
यूँ ही नहीं वो  "देवों" में गिना जाता है
इसलिये धरती में वो देव स्वरुप
"पिता" कहलाता है।

                                            ......आलोक 








Comments

  1. Bahut hi badhiya yaar, bahut achha Likhe 👌👌👌 "सब्र की बेसब्री" bahut hi gehri baat.

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  2. बहुत बहुत शुक्रिया yar 🙏🙂, bas tmne us gahri bat ko samjha.. mera likhna safal rha 😀😀

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