मर्म,,

This blog was based on the lines of The great poet Ramdhari singh Dinkar. These lines are
"श्वानों को मिलता दूध -वस्त्र , 
भूखे बालक अकुलाते हैं , 
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं। "
So I read these lines and wrote my version years ago. I created this poem based on my imagination and emotions.



सड़क किनारे बैठी उस अबला को देखा ,
जाड़े की उस कपकपाती रात में उसे दृढ सा देखा  ,
मानो क्या बिगाड़ लेगी ये रात उसका ,
उसके चेहरे पर एक भाव सबला सा देखा ।

 लिए एक मासूम को गोद में ,
 वो आसमान को ताक  रही थी,
कितनी भावना शून्य है यह दुनिया ,
बस यही भांप रही थी ।

उसे अपने आँचल में कुछ इस कदर,
छिपा रखा था ,उस माँ ने
की जैसे चला हो ये निष्ठुर संसार उसे भी ,
 खुद जैसा बनाने ।

भूख और बेबसी उस पर हावी सी हो रही थी ,
पर तिरस्कार रुपी आँधी में वो चट्टान सी कड़ी थी ,
उसके चेहरे के भावों को पढ़ा तो जाना ,
वो बेचारी अन्दर ही अन्दर रोये जा रही थी ।

इस पराई बस्ती में कौन उसका अपना था ,
उसका लाल न जिए कभी ऐसी जिन्दगी ,
बस यही उसका सपना था  ।

उसे देख मानो ,
भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा था ,
पर उसकी मदद न कर पाने की बेबसी में ,
मैं अन्दर ही अन्दर रो पड़ा था,
शौके  लेखक हूँ,उसे देख मैंने लिख तो दिया ,
पर कितनी रातों से थी भूखी वो,
इसका ध्यान शायद ही किसी ने दिया  ।।
https://gulaabrani.com/2018/12/blog-post.html?m=1

                                     
                              .....आलोक

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