नासमझी,,

परिवारों की नासमझी में,
मासूम झुलसते हैं
गलती करे बड़े और,
सज़ा छोटे पाते है 
मिलकर सब खेले खुशियाँ मनाएँ
पर इस ग़लतफ़हमी की आग में ,
बचपन जलते हैं।

अपनों की बात अपनों से न कर,
गैरों की सुनते हैं
और फिर हक़ से लड़ने के बजाय,
ईर्ष्या में सुलगते हैं
अपना बचपन तो जैसे तैसे जी लिया
पर अभी बचपन और हैं,
जो हुडदंग की आस करते हैं ।

कविता-poem-family-love
नासमझी

https://gulaabrani.com/2019/05/many-lives-many-stories.html?m=1

मन के सारे कौतुहल को,
बड़ों की खींची लकीरों में समेट लेते हैं,
बड़ी आस से देखते और
मजबूरी का भाव लिए मुँह फेर लेते हैं ।

वो क्या समझे ये लकीरें  क्यूँ खिंच गयीं
जिन चबूतरों पर हल्ला होता था
वो क्यूँ सुन्न पड गयीं
अभी कुछ दिनों की ही तो बात है
हम सब खेलते थे, हँसते थे
और अचानक,,
सबकी आदतें एकदम बदल गयीं ।

आख़िर कैसी है ये समझदारी
कि बरसों का प्यार दुलार
जिस पर चार चवन्नियां भारी
ममता स्नेह जिम्मेदारी सब राख
कान के कच्चे, रुपया के सच्चे
बस ऐसी ही है बड़ों की साख ।


                                        आलोक,,,

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