विडम्बना_Nirbhaya



मेरा साया मुझ में सिमटता ही जा रहा है,
मेरा अस्तित्व कहीं भटकता ही जा रहा है,
हाथ उठाकर उसे छूना तो है,
पर दायरा समाज का गिरता ही जा रहा  है । 

आखिर क्या भेद है ,मुझमें  और पुरुषों में ,
अधिकारों की दृष्टि से ,
आखिर क्या भेद है मुझमें और उनमे , जीने की इच्छा की दृष्टि से,
की उनके जन्म पर तो आह्लाद ,
और मुझे आने ही  नहीं दिया जाता है , कोख से । 

यातनाएँ  और जिल्लत तो जैसे मेरे अपने हैं ,
बेबसी ,लाचारी और शोषण तो जैसे मेरे गहने हैं,
बाज़ारों में अपनों और गहनों का कोई मूल्य नहीं है ,
ये तो मैं हूँ, जिस की वजह से ये सब मंहगे हैं । 


आधुनिक समाज शोहदों का प्रतिरूप सा  बन गया है,
उनके फूलने-फलने का रूप सा बन गया है ,
आये -दिन किसी न किसी की अस्मत से खेलते है ये दरिन्दे ,
और समाज केवल मूक दर्शक सा बन गया है । 

हमारी आप-बीती कोई समझ नहीं सकता ,
आगे बढ़कर कोई हमारे लिए लड़ नहीं सकता ,
अरे समाज ,,ये दुर्भाग्य है तुम्हारा ,
कि  मेरे बिना तुम्हारा विकास हो नहीं सकता । 

" मैं तुम्हारे वर्चस्वता की अटूट कड़ी हूँ,
तुम्हे आदर्श दर्ज़ा दिलाने के लिए लड़ी हूँ ,
समाजरूपी गाड़ी एक पहिये से नहीं चलती ,
उसे चलाने के लिए सदैव तत्पर खड़ी  हूँ ॥ "



                                        ........आलोक 

poem,Nirbhaya,2012, कविता ,delhi
IRONY 

https://gulaabrani.com/2018/12/ssc-scam-protest_10.html

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