हद ,,
मैं काबिल नहीं तेरी रहनुमाईयों के,
ये मेरे वजूद पर भारी सी पड़ रही है ,
मैं जनता हूँ हद अपने वजूद की ,
इसीलिये मेरी आँखें तेरी अच्छाई के बदले ,
केवल नम सी पड़ सी रही है ।
मानो,मेरी मजबूरियों ने मुझे कैद सा कर लिया
जब देखता हूँ तो वो हद ही दिखाई देती है,
तेरी हजार अच्छाइयों के बदले ,
मेरी वो एक हिचकिचाहट दिखाई देती है ।
लगता है, मैं बेबस हो गया हूँ
हालातों की कश्मकश में फँस सा गया हूँ,
अपनी हद को बचाते बचाते, मैं
शायद तेरा ऋणी ही बन गया हूँ ।
तुम मेरी हद को क्या नाम देती हो ,
मुझ पर क्या इल्जाम लगाती हो ,
जो भी है गुनेहगार हूँ तुम्हारा
बहुत चाहा की तुमसे कुछ कहूँ ,
कुछ अपनी कहूँ , कुछ तुम्हारी सुनूँ ।
पर कमबख्त ये चुप रहने की ,
लत सी लग गयी है ,
और हालातों ने इस नशे का
लती ही बना दिया है,
आखिर अपनी हद को बचाते बचाते, मैं
शायद तेरा ऋणी ही बन गया हूँ
हालातों की कश्मकश में बेतहाशा फँस गया हूँ।
...आलोक
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