ओज_Thought empowerment of a Common,,
This thought was written down in 2013.
And there was a small house in front of my two
storey rented building.I used to live on the 2nd floor.
And I usually saw some persons shouting and
cheering over there. Sometimes it was the moment
of joy and sometimes,it was just chaos.No doubt,
this was a below average earning family by their
living style.
But there was definitely something that
caught my attention and encouraged me to write
lines on the empower of that family.And that was
their reality, honesty, attitude and survival instinct.
There was no facade except simplicity and belief.
They didn't even care what others thought about them.
They just believed in living their life with their way.
I had already posted this poem on facebook years ago.
So this was the genesis of this poem.
ऊँची ऊँची दीवारों के बीच बसेरा है मेरा ,
भोर की किरण सीधे मेरे आशियाने पर पड़े ,
ऐसा कहाँ नसीब है मेरा,
दुआ करने को जब हाथ उठाती हूँ,
आसमां तो बाद में दिखता है ,
पहले ये दीवार मुखातिब होती है।
मन पहले अधीर होता था , और व्याकुल भी ,
सोचता था उन दीवारों से निकलने वाली ,
हजार प्रतिक्रियाओं के बारे में ,
खोजता था तर्क उन अवनमित आँखों के इशारों में ,
की शायद कोई तो बता दे ,
क्या हूँ मैं ?
पर समय ने मुझे इस जवाब से अनभिज्ञ ही रखा ,
और बिना किसी की परवाह किये,
जीवन जीने का प्रस्ताव रखा।
ये दीवारे मुझे बदलने का दुस्साहस नहीं रखती ,
ये दीवारें मुझे हटाने की ताकत नहीं रखती ,
मैं भले ही सबसे नीचे हूँ औरों की तुलना में ,
पर, ये दीवारें मुझे और गिराने की शक्ति नहीं रखती।
समाज की बारीकी दिखती है, मुझे
समाज की बदहालत दिखती है , मुझे
चूँकि वो बहुमंजिली इमारत ,
मेरा आशियाँ नहीं,
इसीलिये धरातल की गरिमा दिखती है मुझे।
आज मैं निश्चिन्त हूँ, स्वछंद हूँ
अपना जीवन इन दीवारों के परे ,
जीने के लिए स्वतन्त्र हूँ।।
.....आलोक
https://gulaabrani.com/2019/01/midnight-memories.html
And there was a small house in front of my two
storey rented building.I used to live on the 2nd floor.
And I usually saw some persons shouting and
cheering over there. Sometimes it was the moment
of joy and sometimes,it was just chaos.No doubt,
this was a below average earning family by their
living style.
But there was definitely something that
caught my attention and encouraged me to write
lines on the empower of that family.And that was
their reality, honesty, attitude and survival instinct.
There was no facade except simplicity and belief.
They didn't even care what others thought about them.
They just believed in living their life with their way.
I had already posted this poem on facebook years ago.
So this was the genesis of this poem.
ऊँची ऊँची दीवारों के बीच बसेरा है मेरा ,
भोर की किरण सीधे मेरे आशियाने पर पड़े ,
ऐसा कहाँ नसीब है मेरा,
दुआ करने को जब हाथ उठाती हूँ,
आसमां तो बाद में दिखता है ,
पहले ये दीवार मुखातिब होती है।
मन पहले अधीर होता था , और व्याकुल भी ,
सोचता था उन दीवारों से निकलने वाली ,
हजार प्रतिक्रियाओं के बारे में ,
खोजता था तर्क उन अवनमित आँखों के इशारों में ,
की शायद कोई तो बता दे ,
क्या हूँ मैं ?
पर समय ने मुझे इस जवाब से अनभिज्ञ ही रखा ,
और बिना किसी की परवाह किये,
जीवन जीने का प्रस्ताव रखा।
ये दीवारे मुझे बदलने का दुस्साहस नहीं रखती ,
ये दीवारें मुझे हटाने की ताकत नहीं रखती ,
मैं भले ही सबसे नीचे हूँ औरों की तुलना में ,
पर, ये दीवारें मुझे और गिराने की शक्ति नहीं रखती।
समाज की बारीकी दिखती है, मुझे
समाज की बदहालत दिखती है , मुझे
चूँकि वो बहुमंजिली इमारत ,
मेरा आशियाँ नहीं,
इसीलिये धरातल की गरिमा दिखती है मुझे।
आज मैं निश्चिन्त हूँ, स्वछंद हूँ
अपना जीवन इन दीवारों के परे ,
जीने के लिए स्वतन्त्र हूँ।।
.....आलोक
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